अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’ भी इसी तथ्य को इंगित करने के लिये तत्पर है। अनुभव अस्तित्व में ही होना पाया जाता है। अनुभव के पहले समझदारी जानने-मानने-पहचानने के रूप में होना पाया जाता है। यह सच्चाई का अध्ययनपूर्वक होने वाला अवधारणा, संस्कार है। इसके पूर्व रूप में विचार और चित्रण ही रहता है। यही श्रुति, स्मृति, शब्द और चित्रण है। शब्द और चित्रण के आधार पर कितने भी क्रियाकलापों को मानव संपादित करता है यह सब अस्थिरता के साथ ही जूझता हुआ देखा गया है अस्थिरता में भ्रम ही प्रधान कारण है। इसीलिये ही स्मरण और चित्रण के उपरान्त कहीं न कहीं अस्थिरता-अनिश्चयता को प्रकाशित करता ही है। इसी सीमा तक हम इस बीसवीं सदी के अंत तक झेलते आये हैं। स्थिरता की स्वीकृति बोध रूप में ही होना फलस्वरूप व्यवहार में न्याय-समाधान-सत्य प्रमाणित होना पाया जाता है। ऐसा बोध जानने-मानने-पहचानने का ही महिमा है। यह क्रिया जीवन में ही जागृति सहज विधि से होने वाली वांछित प्रक्रिया है।

अस्तित्व में अनुभव सत्ता में (व्यापक में) संपृक्त प्रकृति के रूप में ही देखा गया है। सत्ता में संपृक्त रहने के आधार पर ही क्रियाशीलता नियंत्रण, संतुलन, संरक्षण साम्य ऊर्जा स्रोत होना देखा गया है। इसीलिये प्रकृति में नियंत्रण, संरक्षण निरंतर बना ही रहता है। अतः सत्ता में नियंत्रण स्पष्ट है। इसे ही अध्यात्म संज्ञा दी गयी है या सत्ता का दूसरा नाम ही अध्यात्म है। दूसरे नाम से अध्यात्म साम्य ऊर्जा सहज अस्तित्व का स्वरूप है। सहअस्तित्व ही मूल ध्रुव स्थिर और निश्चय होने के कारण मानव भी निश्चयता, स्थिरता और उसकी निरंतरता सहज विधि से परंपरा के रूप में वैभवित होना चाहता है, यह नित्य समीचीन है। इसे स्पष्ट कर देना ही अनुभवात्मक अध्यात्मवाद का अभीष्ट है।

अस्तित्व में अनुभव ही भ्रम मुक्ति का नित्य स्रोत है। इसका क्रम अनुभवगामी विधि से अध्ययनपूर्वक, अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्त होना ही एक मात्र दिशा और उपाय है। सम्पूर्ण अस्तित्व को चार अवस्था में अध्ययन करने की व्यवस्था “मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद” में प्रावधानित हुआ है।

अनुभव करने के लिये वस्तु चारों अवस्था सहज सहअस्तित्व रूप में वर्तमान सहअस्तित्व ही है। अस्तित्व में अनुभूत होना अनुभवमूलक विधि से बोधगम्य