व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा भी दायित्वों में समाहित रहता ही है। कर्तव्य का स्वरूप आवश्यकता से अधिक उत्पादन, लाभ-हानि मुक्त विनिमय कार्यों में भागीदारी के रूप में सम्पन्न होना देखा गया है। दायित्वों और कर्तव्यों को निर्वाह करने के क्रम में स्वास्थ्य-संयम एक अनिवार्य क्रियाकलाप है जिसको आगे अध्याय में स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार दायित्व बोध के लिये जानना, मानना और कर्तव्य बोध के लिये पहचानना, निर्वाह करना एक अनिवार्य स्थिति है। इस स्थिति में कार्यरत, व्यवहाररत रहना ही जागृत परंपरा सहज महिमा है। परंपरा सहज महिमा ही मानव संतान में, से, के लिये अत्यधिक प्रभावशाली होता है।
मानव परंपरा अपने में बहुआयामी अभिव्यक्ति होना सुदूर विगत से अभी तक और अभी से सुदूर आगत तक होना दिखाई पड़ता है। मानव परंपरा में शिक्षा-संस्कारादि पाँचों आयाम सहित ही स्वस्थ परंपरा होना स्पष्ट हो चुका है। इन्हीं पाँचों आयामों में हर व्यक्ति कार्यरत होना ही बहुआयामी अभिव्यक्ति का तात्पर्य है। इसी क्रम में विभिन्न दृष्टिकोणों, निश्चित दिशाओं और हर देशकाल में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है अर्थात् सभी आयामों में प्रमाणित होने योग्य इकाई मानव है। ऐसे प्रमाणित होने के क्रम में मौलिक रूप में अधिकार स्वत्व स्वतंत्रता पूर्वक अर्थात् स्वयं स्फूर्त विधि से प्रयोग करना स्वाभाविक रहता ही है। साथ ही जागृति व जागृतिपूर्ण परंपरा में ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है।
जागृति ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सहज परंपरा रूप में मानव संतानों को सुलभ हो जाती है। शिक्षा स्वरूप में सहअस्तित्व विधि से प्रयोजन कार्य-विश्लेषण विधि को