भौतिकवाद
by A Nagraj
होता ही है। क्योंकि वातावरण और नैसर्गिकता के दबाव को सहना है या सहने योग्य क्षमता को उपार्जन करना है। अन्ततोगत्वा स्वभावगति में आकर विकसित होना है, गठनपूर्ण होना है। गठनपूर्णता के अनन्तर श्रम और गति दोनों अक्षय होने के कारण अक्षय शक्ति संपन्नता चैतन्य इकाई में एक स्वाभाविक स्थिति हो जाती हैं। ऐसे अक्षय शक्ति संपन्नतावश ही ज्ञानावस्था के मानव में संचेतना का परावर्तन और प्रत्यावर्तन क्रिया संपादित होना एक स्वाभाविक स्थिति है। इसी परावर्तन, प्रत्यावर्तन क्रम में पहचानने और निर्वाह करने की सामरस्यता में, जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने की स्थिति में प्रत्येक मानव समाधानित होने और उसकी निरन्तरता की संभावना उदितादित होने की व्यवस्था स्पष्ट है।
प्रत्येक इकाई में बल संपन्नता ही मूल चेष्टा का कारण है। क्योंकि शक्ति के बिना बल का परिचय, बल के बिना शक्ति का परिचय नहीं होता। इस प्रकार मूल चेष्टा के बिना ऊर्जा का परिचय और ऊर्जा के बिना मूल चेष्टा नहीं होता। परस्परता में संपर्क के साथ हर इकाई नित्य क्रियाशील होने के कारण, क्रिया के मूल में निरपेक्ष ऊर्जा, साम्य सत्ता अपने आप नित्य प्राप्त है। इसका कारण यही है कि साम्य ऊर्जा न हो ऐसा कोई स्थान नहीं है। साथ ही साम्य ऊर्जा में संपूर्ण प्रकृति ओत-प्रोत है। इसीलिए ऐसी साम्य ऊर्जा में संपृक्तता स्वयं बल संपन्नता, बल संपन्नता स्वयं मूल चेष्टा, मूल चेष्टा स्वयं क्रिया, क्रिया स्वयं श्रम-गति-परिणाम, श्रम-गति-परिणाम स्वयं विकास और इसकी निरन्तरता है। इसी क्रम में प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक इकाई के एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था है।
पदार्थावस्था में तात्विक क्रिया में परस्पर परमाणु अंश की निश्चित दूरियाँ स्वयं उनके परस्परता की पहचान को प्रकाशित करता है। साथ ही भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संगठन भी परस्पर अणुओं की पहचान का द्योतक सिद्घ हो जाता है। प्राणावस्था में रासायनिक अणु संरचनाएँ, प्राणकोशिकाओं की पहचान का द्योतक है। यह बीज वृक्ष नियम पूर्वक संपादित होते हैं। जीवावस्था में जड़-चैतन्य-प्रकृति का प्रारंभिक प्रकाशन है, जिसमें से शरीर रचना जड़-प्रकृति स्वरुप होने के कारण वंशानुषंगी सिद्घांत पर आधारित रहता है। साथ ही जीवन संचेतना जीवावस्था में अध्यास के रूप में प्रभावित रहता है। अध्यास का तात्पर्य परंपरागत कार्यकलापों और विन्यासों को गर्भावस्था से ही