भौतिकवाद
by A Nagraj
चैतन्य प्रकृति में विशेषकर ज्ञानावस्था के मानव में परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन प्रक्रिया स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं। मानव संचेतना में भी पाँचों शक्तियों की अभिव्यक्ति होने की संभावना रहते हुए, संचेतना को पहचानने एवं निर्वाह करने के क्रम में नित्य गतिशील होना पाया जाता है। यही इसका निराकरण है कि प्रत्यावर्तन पूर्वक परावर्तन में समाधान अपेक्षित तथ्य है। यह प्रत्येक व्यक्ति में प्रयोग पूर्वक, व्यवहारपूर्वक और अनुभवपूर्वक तभी सिद्घ हो जाता है, जब पहचानने एवं निर्वाह करने में सामरस्यता हो जावे। यही समाधान का स्वरुप है तथा इसकी निरन्तरता होती है।
“श्रम मानव जीवन में अविभाज्य आयाम है।” श्रम स्वयं बल के बराबर में होता है, श्रम विश्राम के अर्थ में ही है।
प्रत्येक स्थिति और अवस्था में प्रत्येक इकाई में बल संपन्नता रहता है । यह बल संपन्नता विकास के क्रम में आचरण के रूप में मिलती है। फलत: विकास और उसकी निरन्तरता होती हैं। बल संपन्नता स्वयं नित्य और स्थिर होने के कारण बल, स्थिति में, शक्ति गति में अविभाज्य होना स्वाभाविक हुआ। इसलिए प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में विद्यमान रहते हैं। श्रम (बल) प्रत्येक इकाई में धर्म और स्वभाव के रूप में; गति स्वभाव और गुण के रूप में और परिणाम रूप तथा अमरत्व सहित वर्तमान है।
इकाई में मूलत: बल चुम्बकीय बल ही है। यह सत्ता में भीगे रहने का द्योतक है। इकाई के रग-रग में बल संपन्नता होने के कारण श्रम की नित्यता अपने आप स्पष्ट हो गयी। इससे व्याख्यायित हो जाता है कि प्रत्येक इकाई प्रत्येक स्थिति में श्रमशील है। श्रम निरन्तर विश्राम के अर्थ में ही हुआ करता है। विश्राम का भासाभास इकाई की स्वभावगति में होता हैं। जैसे-जैसे नैसर्गिकता और वातावरण इकाई को अपने स्वाभाव गति में रहने में हस्तक्षेप करता गया, वैसे-वैसे ही इकाई वातावरण और नैसर्गिकता के हस्तक्षेप से अथवा हस्तक्षेप के प्रभाव से मुक्त होने की क्षमता योग्यता और पात्रता को उपार्जन करने की आवश्यकता स्वभाव सिद्घ हुई। क्योंकि अस्तित्व में किसी का नाश होता नहीं इस कारण स्वभाव गति में आकर विकसित होना ही है। इस प्रकार श्रम, विश्राम के लिए अविरत प्रयासरत रहना अस्तित्व में अविभाज्य रूप में वर्तमान है। इससे पता चलता है कि समाधान की अवधि तक बल का प्रयोग अर्थात् श्रम का प्रयोग