भौतिकवाद

by A Nagraj

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चैतन्य इकाई तात्विक रूप में एक गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु है। परमाणु में विकास होने पर रूप परिवर्तन के साथ गुण परिवर्तन होता है। गठनपूर्णता का तात्पर्य परमाणु के गठन में जितने परमाणु अंशों के समाने की अस्तित्व सहज व्यवस्था है, उन सभी परमाणु अंशों के समा जाने से है। गठनपूर्ण स्थिति में उस परमाणु में से न तो कोई परमाणु अंश बढ़ता है और न ही कोई अंश घटता है। इसी सत्यतावश गठनपूर्ण परमाणु में स्थिरता सहित अक्षयशक्ति और बल संपन्नता है। गठनपूर्ण परमाणु (जीवन) में मात्रात्मक परिवर्तन के बिना ही गुणों में परितर्वन होता हैं। यह भ्रम से जागृति पर्यन्त रहता है।

जीव और मानव प्रकृति जड़-चैतन्य का संयुक्त साकार रूप होने के कारण ही है कि जीवन के द्वारा शरीर में जीवन्तता प्रकाशित है। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के कारण ही प्रकृति परस्पर पूरकता के रूप में नित्य वर्तमान है। यही विकास का प्रधान क्रिया स्वरुप है। इसी क्रम में जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकाशन भी एक स्वाभाविक स्थिति है। यही नियति क्रम व्यवस्था भी है। प्रकृति में प्रत्येक इकाई सहअस्तित्वरत है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व है। इसी सत्यतावश जड़-चैतन्य में सहअस्तित्व, (जीवन गठनपूर्ण परमाणु) और रचना (प्राणकोशिकाओं की रचना) में सहअस्तित्व सिद्घ हुआ। सहअस्तित्व नित्य पूरकता के अर्थ में स्पष्ट है। इस प्रकार अस्तित्व ही विकास, विकास ही क्रम, क्रम ही व्यवस्था, व्यवस्था ही स्वयं नियति है।

अधिक शक्ति और बल, कम शक्ति और बल के माध्यम से प्रकाशित होता है, क्योंकि बल और शक्ति की अधिकता क्षयशील और अक्षयशीलता के अर्थ में सार्थक होती है। अक्षयबल और शक्ति प्रत्येक चैतन्य इकाई में समान रूप से विद्यमान है। जबकि जड़ प्रकृति की प्रत्येक इकाई में शक्ति की क्षरणशीलता (परिवर्तनशीलता) स्पष्ट है। इसी सत्यतावश यह सिद्ध हो जाता है कि जड़ प्रकृति की स्थूलता उसकी शक्तियों की क्षरणशीलतावश अनिवार्य स्थिति है, अर्थात् संगठनात्मक बन्धन स्वाभाविक है। जबकि चैतन्य इकाई तात्विक रूप में एक ही परमाणु है, वह गठनपूर्ण परमाणु होने के कारण उसकी सूक्ष्मता अपने आप व्याख्यायित है। इस प्रकार जीवन की सूक्ष्मता और अक्षय महिमा स्पष्ट होने के कारण यह तथ्य असंदिग्ध रूप में सिद्घ हो जाता है कि प्राण कोशिकाओं से रचित शरीर, चैतन्य-प्रकृति की तुलना में कम शक्ति एवं कम बल