जीवनविद्या एक परिचय
by A Nagraj
माने प्रमाण क्या माने? इसमें बताने की कोई चीज ही नहीं है तो हम प्रमाण कैसे प्रस्तुत करेंगे। यह जिज्ञासा गहराया तो हमको समाधि हुआ कि नहीं इसको आजमाने के लिए हमने संयम नाम की एक क्रिया किया। ये भी सलाह पूर्वजों से मिली थी। ये पातंजली योगसूत्र में उल्लेखित है उसमें लिखा है ‘धारणा ध्यान समाधि त्रयमेकत्रत्वातात् संयमाः।’ इसको कोई भी मेधावी व्यक्ति पढ़कर देख सकता है। जो संयम के बारे में कुछ भी लिखा है हमको स्वीकार नहीं हुआ। अपने ढंग से हम संयम का एक चित्र बनाया, तरीका बनाया। उस तरीके से हम संयम किया। संयम करने के फलस्वरूप तो जर्रा-जर्रा अस्तित्व हमको, हमारे सामने दिखा, दिखना शुरू हुआ। देखने का मतलब समझना है।
एक परमाणु से लेकर इतनी बड़ी धरती तक क्या-क्या प्रक्रिया से गुजरी उसको हम क्रमवत् देखा है। विधिवत देखा है, उसको आपको बोध करा देते हैं। ये स्थिति मुझमें स्थापित हुई। इसी के साथ परमाणुओं के कतार में एक ‘जीवन परमाणु’ को देखा। वो ‘जीवन परमाणु’ मुझमें आपमें, आज पैदा हुए आदमी में, शरीर छोड़ा हुआ स्थिति में, ये सब समान रहते हैं। ये बोध हुआ शरीर छोड़कर भी जीवन रहता और शरीर के साथ भी रहता है। शरीर के साथ क्यों रहता है। उसमें पूछा जाए तो आगे प्रसंगवश मैं बताऊंगा। इस जगह में हम देखा कि शरीर के माध्यम से ‘जीवन’ स्वयं को मानव परंपरा में प्रमाणित करना चाहता है। इतना ही सूत्र है इसका। यह जीवन क्या प्रमाणित करना चाहता है? इसका उत्तर ये मिला; जीवन पहले जीना चाहता है उसके बाद तो जीने के साथ-साथ सुखी होना चाहता है। सुखी होने के साथ-साथ प्रमाणित होना चाहता है।
ये तीन स्थितियाँ है। इसमें से जो पहली स्थिति है : जीना चाहते हैं वह जीव कोटि में ही पूरा हो जाता है। जैसे ही वो सुखी होना चाहते हैं और प्रमाणित होना चाहते हैं यह मानव कोटि में ही पूरा हो सकता है और कहीं पूरा होता नहीं। इसको मैंने भली प्रकार से देखा है। ये बहुत संतुष्टि की जगह मुझे मिली। उसके बाद उसी के चलते सुखी होने के लिए जो सूत्र रहा - ‘समाधान सहित व्यवस्था में जीना’ ये भी देख लिया।