जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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विलय होना ही है, तो यह ब्रह्म जीवों के हृदय में आत्मा के रूप में क्यों बैठ गया? पहले जब जीव हुआ था उस समय में उनमें कोई आत्मा नहीं था फिर ब्रह्म को उसके अंदर घुसने की क्या जरूरत थी? ऐसा हमारा वितण्डावाद जैसा हुआ। क्योंकि हम बुजुर्गों की ध्वनि से ध्वनि नहीं मिलाया इसलिये हमें वितण्डावादी नाम दिया। हमने कहा आप लोग जो समझते हैं वह ठीक है किन्तु इसका उत्तर तो आप प्रस्तुत करोगे। परन्तु इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला। उसके बाद यही कहा गया कि इसका उत्तर भी तुम्हें समाधि में ही मिलेगा। अब क्या करें? समाधि के लिये तत्पर होने के लिये हम शनैः-शनैः तैयार हुये। हमारा मन धीरे-धीरे बनता रहा। इस तरह सन् 1944 से शुरूआत हुई और सन् 1946 तक हम समाधि के लिये तत्पर हो गये। उस समय और एक स्थिति बनी देश में स्वराज्य आयेगा इसकी संभावना बलवती हुई। सन् 1947 की बात है जैसा कि हम लोग आशा करते थे सत्ता का हस्तान्तरण हुआ। उसमें भी बहुत बड़े चिंतनशील थे, बुजुर्ग थे, विचारशील थे उनकी बातों को सुनते रहे और उनमें भी व्यतिरेक आई सफलता के दिन तक। उसमें भी हम पीड़ित हुये। उसके बाद और एक आशा लगी अब हमारा एक संविधान बनेगा। उसमें शायद सही मानव के मूल्यांकन की व्यवस्था रहेगी। मैं अपने तरफ से, स्वयं स्फूर्त विधि से सोचता रहा कि संविधान से कहीं न कहीं मार्गदर्शन मिलेगा।

संविधान की जब रचना हुई तब इस संबंध में अखबारों में जो लेखा-जोखा आता रहा उसको मैं ध्यान से सुनता रहा और समझने की कोशिश करता रहा। सन् 1950 तक की सारी बातें सुनकर हमारे मन में आया कि इस संविधान के तले सही मानव का मूल्यांकन नहीं हो सकता। इसका आधार यह बना कि सही मानव का कोई चरित्र ही इसमें व्याख्यायित नहीं है जिसको हम राष्ट्रीय चरित्र कह सकें। अब क्या किया जाये? पहले से संकट था ही, वेदांत और समाधि, समाधि में ही सब उत्तर मिलना है। इस प्रश्न को भी उसी से जोड़ लिया। समाधि में ही इसका भी उत्तर मिलेगा जिसमें किसी बड़े बुजुर्ग के साथ या विद्वानों के साथ तर्क करने की आवश्यकता नहीं है। मिलता होगा तो सबका जवाब मिलेगा, नहीं मिलता है तो यह शरीर यात्रा बोध के लिए अर्पित है ऐसा हम अपने में निर्णय लिया। इसके लिए एक व्यक्ति और तैयार हो गयी वह है मेरी धर्मपत्नी। हम अमरकंटक को एक