जीवनविद्या एक परिचय

by A Nagraj

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को समझना तथा सहअस्तित्व में मानव अपने आचरण को समझना है। यही जीवन विद्या है। विद्या का दो भाग है - जीवन ज्ञान और सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान। इन दोनों का धारक वाहक जीवन ही है। जीवन ज्ञान का मतलब जीवन की जीवन को समझने की प्रक्रिया है। जीवन ही जब अस्तित्व को समझता है इस प्रक्रिया को अस्तित्व दर्शन कहा। सभी जीवन समान है सारे मानवों में जीवन एक समान है। समानता की बात कैसे आ गई। जीवन, जीवन को समझने की विधि में, प्रमाणित करने की विधि में, अस्तित्व को समझने की विधि में सहअस्तित्व को प्रमाणित करने की विधि में यह आया कि सभी जीवन समान है।

समझने की व्यवस्था शरीर में कहीं भी हाथ-पैर, कान-नाक, चक्षु, मेधस, हृदय कहीं भी नहीं है। यह व्यवस्था जीवन में ही है। जीवन ही जीवन को और सहअस्तित्व को समझने वाली वस्तु है और दूसरा कोई समझेगा नहीं। इस ढंग से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं मानव समझदारी व्यक्त करने के लिए (प्रमाणित करने के लिए) शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना जरूरी है। यह केवल शरीर या केवल जीवन रहने पर नहीं होगा। प्रमाणित करने का केन्द्र बिन्दु हुआ व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना। यही समझदारी की सार्थकता है। हम सब व्यवस्था में जीना ही चाहते हैं ये प्रक्रिया जीवन सहज ही है। ये कोई लादने वाली चीज नहीं है।

सहअस्तित्व को समझने के क्रम में अस्तित्व स्वंय सहअस्तित्व है क्योंकि सत्ता (व्यापक) में सम्पृक्त (डूबी, भीगी, घिरी) प्रकृति ही संपूर्ण अस्तित्व है। प्रकृति अपने में एक-एक गिनने योग्य वस्तु है। गिनने वाला मानव है। ये गिनने योग्य वस्तु प्रकृति में जड़ प्रकृति और चैतन्य प्रकृति सब हैं। छोटा सा सूत्र है - समझदारी से मानव सुखी, नासमझी अर्थात् जीव चेतना में जीता हुआ मानव दुखी। अभी तक सारा संसार जूझता रहा। पहले जूझता रहा जीवों से, तप करो, योग करो, सन्यासी हो जाओ तो सुखी हो जाओगे। लोग इसका भी प्रयोग किए कुछ प्रमाण मिला नहीं, परंपरा बनी नहीं। दूसरी बार ये जूझे कि खूब वस्तु को इकट्ठा कर लो सुविधा से सुखी हो जाओगे। उससे भी सुखी हुए नहीं। दोनों बातों से कोई सुखी नहीं हुआ। तब सोचने की बात है इसी क्रम में निकल कर आया कि समझदारी से समाधान,