मानवीय संविधान

by A Nagraj

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भाग – दो

मानवीय संविधान परिचय

विकल्पात्मक अवधारणा

  • सत्ता में संपृक्त प्रकृति, अस्तित्व सर्वस्व, नित्य वर्तमान है।
  • अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में नित्य वर्तमान है। इसका मूल रूप सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ही है। यह न तो घटता है और न बढ़ता है। हम मानव जीव जगत का उत्पत्ति- उद्भव, विभव, प्रलय के चक्कर में फंसे है जबकि नियति क्रम से पदार्थ संसार में जितने प्रकार के परमाणुओं आवश्यक रहता है उतने से समृद्ध होने के उपरान्त यौगिक विधि पूर्वक वन - वनस्पतियों का रचना, जीव शरीर, मानव शरीर रचना व परंपरा के आधार पर चारों अवस्थाएं एक-दूसरे के साथ पूरकता उपयोगिता विधि से प्रगटन सहित परंपरा स्पष्ट है।
  • सहअस्तित्व में प्रत्येक एक अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करते हुए पूरकता उपयोगिता विधि से होना देखने को मिलता है। देखने का मतलब समझने से है। यह भ्रमित मानव के अतिरिक्त संपूर्ण प्रकृति यथा जीव, वनस्पति तथा पदार्थ रूपों में स्पष्ट है। प्रत्येक मानव भी व्यवस्था में होना-रहना चाहता है एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित करने के लिए उत्सुक है। यह जागृत परंपरा में ही सफल होता है ना कि जीव चेतना में।
  • प्रत्येक मानव जीवन और शरीर के संयुक्त साकार रूप में वैभव व परंपरा में है ही।
  • जानना-मानना ही समझदारी, पहचानना-निर्वाह करना ही ईमानदारी है। ईमानदारी पूर्वक जिम्मेदारी भागीदारी सम्पन्न होता है। यह जीवन सहज वैभव है। जीने की कला के रूप में अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करना ही मानव चेतना मूलक विधि है, आचरण है।
  • मानव जाति एक, कर्म (उत्पादन रूप में) अनेक।

मानव धर्म (सर्वतोमुखी समाधान सार्वभौम व्यवस्था व सुख रूप में) एक, व्यक्तिवाद समुदायवाद के रूप में अनेक।