मानवीय संविधान

by A Nagraj

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  • जागृत मानव से देव मानव, देव मानव से दिव्य मानव श्रेष्ठ परंपरा है। भ्रमित अमानव के लिए जागृत मानव श्रेष्ठ है इस क्रम में श्रेष्ठता का सम्मान विधि स्पष्ट है। दिव्य मानव पद में ही समानता सम्पन्न व पूर्ण होता है।
  • दिव्य मानव और देव मानव जागृति पूर्णता को प्रमाणित करते हुए मानवीयता पूर्ण आचरण सहित व्यवस्था में वैभव है।
  • मानव, देव मानव, दिव्य मानव का मानवीयता पूर्ण आचरण सहित अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना स्वाभाविक है।
  • जागृत मानव में न्याय दृष्टि जीवन ज्ञान प्रधान, धर्म सत्य दृष्टि; जन बल, धन बल, यश बल कामना सहित प्रवृत्तियाँ एवं धीरता प्रधान धीरता, वीरता, उदारता सहज स्वभाव सहित आचरण में स्पष्ट होता है।
  • देव मानव पद में वैभवित हर नर-नारी में यश बल प्रवृत्ति; न्याय, धर्म प्रधान सत्य दृष्टि; वीरता, उदारता, दया प्रधान स्वभाव; आचरण में प्रमाण सहित अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी स्पष्ट होता है।
  • दिव्य मानव पद में हर नर-नारी परम सत्य दृष्टि प्रधान धर्म, न्याय, मानव लक्ष्य, जीवन लक्ष्य प्रमाणित होता है और दया, कृपा, करूणा प्रधान धीरता, वीरता, उदारता सहज स्वभाव होता है।
  • जागृत मानव रूपी ज्ञानावस्था के अनन्तर देव व दिव्य मानव पद समीचीन रहता है।
  • देव मानव पद में हर नर-नारी में जन-धन कामनायें गौण और यश बल कामना प्रधान होती है। इस कारण से मानव, देव मानव का सम्मान करना स्वाभाविक रहता है साथ में समानता का सम्मान होता ही है।
  • दिव्य मानव पद में हर नर-नारी जन, धन, यश बल कामना से मुक्त सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभूत परम ऐश्वर्य रूपी स्वतंत्रता व स्वराज्य सहज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहित प्रमाण प्रस्तुत करना, कराना स्वाभाविक रहता है।

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी में परिपक्वता प्रमाण सम्पन्नता ही दिव्य मानव पद सहज ऐश्वर्य और सार्थकता है।