अध्यात्मवाद
by A Nagraj
अध्याय - 1
समीक्षा एवम् प्रस्ताव
सुदूर विगत से ही अध्यात्मवादी, अधिदैवीयवादी और अधिभौतिकवादी विचार मानव-मानस में स्मृति और श्रुति के रूप में हैं। कल्पनाओं-परिकल्पनाओं के आधार पर वाङ्गमय रचना बहुत सारा हुआ है। इसमें अनेकानेक मानव ने भागीदारी का निर्वाह किया घोर परिश्रम किया। इसी क्रम में घोर तप, योगाभ्यास, यज्ञ, दान के रूप में भी अपने-अपने आस्थाओं के साथ जीकर दिखाया अथवा करके दिखाया। इन्हीं सब कृत्यों को आदर्शवादी कृत्य भी मानते आये हैं। क्योंकि ये सब कृत्यों को सब नहीं कर पाते थे। न करने वाले के लिए, करने योग्य कृत्यों के रूप में सभी प्रकार के धर्म ग्रंथ बताते आये। ये सब करने के उपरांत भी अध्यात्म, देवता और ईश्वर ये सब रहस्य में ही रहे। रहस्य की परिभाषा है - हम मानव जो कुछ जानते नहीं है वह सब रहस्य होना समीक्षित हुआ। इस विधि से नहीं जानते हुए मनवाने के जितने भी प्रयास हुए वह सब आस्थावादी कार्यकलाप के रूप में गण्य हुआ। आस्था का परिभाषा ही है नहीं जानते हुए किसी के अस्तित्व को स्वीकार करना। यह सर्वविदित है।
ईश्वर, अध्यात्म और देवी-देवता के अधीनता में ही जीव जगत होना वाङ्गमयों में बताया गया है। अनजान घटनाओं की व्याख्या करने के क्रम में जीव-जगत अध्यात्म, देवी-देवता और ईश्वराधीन है इसके समर्थन में बहुत कुछ लिखा गया है। इन सभी प्रयासों का महिमा सहित अर्थात् बहुत सारे साधनों को नियोजित करने के उपरांत भी अध्ययन विधि से कोई प्रमाण, अनुभव विधि से कोई प्रमाण, प्रयोग विधि से कोई प्रमाण और व्यवहार विधि से कोई प्रमाण मिला नहीं। जबकि कोई मानव रहस्य को वरता नहीं। आस्था के आधार पर अपने कल्पनाशीलता के अनुरूप रहस्य को सजाने गया वही वाङ्गमय का स्वरूप बना। इसका आधार केवल मानव सहज कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता ही है और मानव कर्म करते समय स्वतंत्र, फल भोगते समय परतंत्र रहा।